Zenab rehan

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सातवां अध्याय




आखिरी श्लोक में जो यह कहा है कि सभी पदार्थ मुझ परमात्मा में ही हैं, न कि मैं ही उनमें हूँ, उसका कुछ मतलब है। अब तक रस, गंध आदि के रूप में सभी पदार्थों के जिन मूल कारणों को बताया है उन्हें देखने से पता चलता है कि वे उन्हीं पदार्थों में रहते हैं। सप्तमी विभक्ति लगा-लगा के यही कहा भी गया है। माला के दाने का जो दृष्टांत दिया है उसमें भी सूत दानों के भीतर ही है, न कि दाने सूत के भीतर। इससे कोई ऐसा न समझ ले कि परमात्मा के आधार ये भौतिक पदार्थ ही हैं, इसलिए कहना पड़ा कि मैं उनमें नहीं हूँ, किंतु वही मुझमें हैं - वे मेरे आधार नहीं हैं, किंतु मैं उनका आधार हूँ। पदार्थों को आधार मानने से अंततोगत्वा उनका स्वतंत्र अस्तित्व मानना ही पड़ता और इस तरह अद्वैतवाद या सर्वभूतात्मभूतात्मावाला गीताधर्म लागू हो पाता नहीं। इसलिए ऐसा कहना जरूरी हो गया। इस कथन का तात्पर्य यही है कि इस प्रकार हर पदार्थों का विश्लेषण करते-करते अंत में इनका पता कुछ नहीं लगता। एक आत्मरूपी परमात्मा ही सबों के मूल में रह जाता है। उसी में इनकी कल्पना सपने की तरह हुई है। इसीलिए इन्हें देख के इनके मूल का अंवेषण करने से ही काम चलेगा जो इनमें न हो के इनसे स्वतंत्र है। इसका विस्तृत विवेचन छांदोग्योपनिषद् के छठे अध्या य के आठवें खंड में आया है। वहाँ बार-बार लिखा है कि 'अन्नेन शुंगेनापोमूलमन्विच्छादिभ: सोम्य शुंगेन तेजो मूलमन्विच्छतेजसा सोम्य शुंगेन सन्मूलयन्विच्छ सन्मूला: सोम्येमा प्रजा सदायतना: सत्प्रतिष्ठा:।'

अंत में सात्त्विक आदि शब्दों से जो भौतिक पदार्थों को याद किया है उसका दूसरा प्रयोजन भी है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि ऐसी जानकारी सबों को क्यों नहीं होती? इसका समाधान जरूरी है। यों तो तीनों गुणों के भीतर जगत आई जाता है। फिर भी इन त्रिगुणात्मक पदार्थों की यह खूबी है कि ये अपने भीतर ही लोगों को फँसा लेते हैं। इनके फँसाने के कौन-कौन से तरीके हैं यह बात गुणवाद में विस्तृत रूप से कही जा चुकी है। नतीजा यह होता है कि इनसे आगे हम बढ़ने पाते ही नहीं। इनका फंदा ऐसा ही जो ठहरा। लोभी बनिये की तरह हम बारह महीने, तीस दिन जीवन भर यही सोचते रह जाते हैं कि बच्चों के लिए थोड़ा यह कर लें, वह कर लें, तो फिर भगवान को याद करने कहीं अलग चलेंगे। जरा मंदिर बना लें, तीर्थ कर लें, दान-पुण्य कर लें, कथा-वार्ता सुन लें, तो फिर विरागी बनेंगे। ऐसा ही सोचते-सोचते और करते-करते जीवन खत्म हो जाता है और आगे बढ़ पाते नहीं। इसीलिए कह दिया है कि इन पदार्थों में मैं नहीं हूँ, यही मुझमें हैं। इन्हें छोड़ो तो मुझे पाओगे। बिना ऐसा किए आत्मा-परमात्मा को पहचानना असंभव है। ये माया के ही गुण और पदार्थ हैं और माया तो ठगने वाली ही ठहरी न? उसने उसी रस्सी में फाँस लिया है। उसकी हजार चालें हैं। जब तक इनसे हट के परमात्मा की ओर बिलकुल ही लग न जाएँ तब तक न तो माया से - इस बड़ी नींद से - पिंड ही छूटेगा, न जगेंगे ही और न इन पदार्थों का पूर्वोक्त रहस्य समझ सकेंगे। यही बात आगे के श्लोकों में कही गई है। वहाँ इस जगने का, इस ज्ञान का महत्त्व सुझाया गया है। यह भी बताया गया है कि परमात्मा की ओर मुखातिब होने वाले भी लोग भटक जाते हैं। इसलिए सजग रहना होगा।

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत।

मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम्॥ 13 ॥

इन त्रिगुणात्मक पदार्थों में ही फँस के भूला हुआ यह संसार इनसे निराले और अविनाशी मुझ भगवान को ठीक-ठीक समझ पाता नहीं। 13।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यंते मायामेतां तरन्ति ते॥ 14 ॥

(ऐसा इसीलिए होता है कि) विलक्षण चमत्कार वाली, जिससे पार न पाया जा सके ऐसी (तथा) अनेक गुणों - फँसाने के साधनों - वाली मेरी माया ही तो आखिर यह सब कुछ है। (इसीलिए) जो लोग केवल मुझ परमात्मा में ही लग जाते हैं वही इस माया से पार पाते हैं। 14।

न मां दुष्कृतिनो मूढ़ा: प्रपद्यंते नराधमा:।

माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता:॥ 15 ॥

(विपरीत इसके) जो मनुष्यों में अधम, दुष्कर्मी, आसुरी प्रकृतिवाले (और) मूढ़ हैं - विवेकशून्य हैं (और) जिनका ज्ञान माया ने हर लिया है वह तो मुझमें कभी लगते नहीं। 15।

चतुर्विधा भ जंते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।

आ र्त्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञाना च भरतर्षभ॥ 16 ॥

हे अर्जुन, हे भरतर्षभ, (जो) सुकर्मी जन मुझ परमात्मा में लगते हैं वे चार प्रकार के होते हैं - धन चाहने वाले, कष्ट में पड़े हुए, ज्ञान की इच्छावाले और ज्ञानी। 16।

यहाँ यद्यपि श्लोक में क्रम दूसरा है तथापि असली क्रम इन चारों का वही है जो हमने लिखा है। श्लोक में छंद रचना के लिए ही उलट-फेर करना पड़ा है। दरअसल भगवान की ओर मुखातिब होने वाले भी पहले धन-संपत्ति में ही फँस जाते हैं, वहीं तक रह जाते हैं। यदि कोई आगे बढ़ा भी तो एकाध भारी संकट आते ही उसी से त्राण चाह के वहीं फँस जाता है। हाँ, जो इन दो फंदों से पार हो जाते हैं उनमें पहले तो यही भावना होती है कि मुझे आत्मज्ञान प्राप्त हो। यह ठीक भी है। भटकना तो यह है नहीं। क्योंकि यही असली सीढ़ी है। इसी इच्छा से भगवान की तरफ जाने और उसमें लग जाने वाले ही पीछे ज्ञानी होते हैं, जो समस्त जगत को अपना स्वरूप ही देखते हैं। इस तरह यदि देखा जाए तो परमात्मा की ओर जाने वाले सभी के सभी लोग पामरों से तो अच्छे ही हैं।

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:॥ 17 ॥

एक - अद्वैत ब्रह्मात्मा - ही में लीन ज्ञानी उन (चारों) में (भी) श्रेष्ठ है। क्योंकि मैं ज्ञानी का सबसे प्यारा हूँ और वह भी मेरा सबसे प्यारा है। 17।

आखिर आत्मा से - अपने आप से - बढ़कर अपना प्यारा होगा कौन? और ये ब्रह्म एवं ज्ञानी तो परस्पर एक दूसरे की आत्मा होई चुके हैं। वे एक दूसरे से जुदा नहीं हैं, पृथक नहीं हैं। एक की हस्ती - सत्ता - दूसरे से जुदा हई नहीं। ज्ञान के यही मानी हैं।

उदारा: सर्व एवैत ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।

आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमांगतिम्॥ 18 ॥

(यों तो) सभी अच्छे ही हैं। (लेकिन) ज्ञानी तो मेरी (अपनी) आत्मा ही हैं। क्योंकि वह मुझी में मन को जोड़ता तथा मुझसे बढ़ के दूसरा कुछ भी मानता ही नहीं। 18।

बहूनां जन्मना मंते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥ 19 ॥

बहुत जन्मों (में यत्न करते-करते तब कहीं सब) के अंत में ज्ञान प्राप्त करके 'यह सब कुछ भगवान ही हैं' इस प्रकार मुझ परमात्मा में जो लग जाता है वही अत्यंत दुर्लभ महात्मा है। 19।

लेकिन कोई ऐसा न समझ बैठे कि इस प्रकार चार ही ढंग के लोग भगवान की ओर बढ़ते हैं, इसीलिए गीता के श्रद्धावाले सिद्धांत के अनुसार, जिसका पूरा वर्णन पहले ही किया जा चुका है, यह बताना जरूरी हो गया कि और भी लोग हैं जो घूम-घाम के भगवान की ओर जाते हैं, न कि सीधे। फर्क यही है कि ये चार सीधे जाते हैं। इसलिए इन्हें वहाँ औरों की अपेक्षा शीघ्र पहुँचने का मौका है। बेशक, इन चारों की अपेक्षा शेष लोग भूले हुए जरूर माने जाने चाहिए। क्योंकि वे यह समझते हैं कि भगवान तो केवल मुक्ति देता है, बाकी पदार्थ तो दूसरे देवता लोग ही दे सकते हैं, देते हैं। अपनी अनेक प्रकार की कामनाओं के करते वे अंधे हो जाते हैं और सोचने लगते हैं कि भला ये तुच्छ चीजें भगवान क्या देंगे! इसीलिए भटकते भी तो हैं। क्योंकि उन्हें जानना चाहिए था कि जो कुछ भी देना-दिलाना या करना-कराना हो केवल भगवान ही करते हैं। औरों की ओर नजर करना ठीक वैसा ही है जैसे कुत्ते का खून-मांस के लिए सूखी हड़डी चबाना। वे बेचारे ऐसा इसीलिए करते हैं कि गुण-कर्म के अनुसार उनकी प्रकृति ही ऐसी होती है।

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यंतेऽन्यदेवता:।

तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया॥ 20 ॥

अनेक प्रकार की कामनाओं के चलते समझ खराब हो जाने से (बहुतेरे लोग) अपनी-अपनी रुचि के अनुसार विभिन्न देवताओं की शरण में उन्हीं-उन्हीं के नियमों के अनुसार जाते हैं। 20।

यहाँ प्रकृति का स्वभाव अर्थ है। उसमें दो बातें आती हैं। एक तो उसी के अनुसार भगवान को छोड़ के सामान्यत: राजस, तामस आदि खयाल से दूसरे देवताओं की ओर झुकते हैं। दूसरे विशेष रूप से कौन किस देवता की ओर झुकेगा इसमें भी प्रकृति से पैदा हुई रुचि कारण है। इस पर विशेष प्रकाश पहले ही डाल चुके हैं।

यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति।

तस्य तस्याचलां श्र द्धां तामेव विदधाम्यहम्॥ 21 ॥

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।

लभते च तत: कामान्मयैव विहितान् हितान्॥ 22 ॥

जो-जो भक्त जिस-जिस देवता की पूजा श्रद्धा से करना चाहता है उस-उसकी उसी श्रद्धा को मैं - परमात्मा - अचल बना देता हूँ (और) वह उसी श्रद्धा के साथ उस (देवता) की आराधना करता भी है। (मगर) उसके बाद अपनी इच्छा के अनुकूल मेरे ही दिए पदार्थों को पाता है। 21। 22।

इन श्लोकों के श्रद्धा और भक्त शब्द महत्त्व रखते हैं। इन दोनों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जब तक अपने लक्ष्य में पूर्ण विश्वास के साथ सच्चे दिल और ईमानदारी से कोई काम न करे तब तक सफलता नहीं मिलती है और अगर ये बातें हैं तो वह चाहे कुछ भी करे सब ठीक ही है। जो श्रद्धा-भक्ति भगवान के संबंध में होती है वही यहाँ भी है। फर्क यही है कि लक्ष्य और रास्ता बदल गया है। लेकिन यदि श्रद्धा-भक्ति में कमी हो गई तो सब चौपट ही समझिए। तब तो कोई भी लक्ष्य सिद्ध होगा नहीं। श्रद्धा के अचल होने के यही मानी हैं।

अंतवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।

देवान्देवयजो यांति मद्भक्ता यांति मामपि॥ 23 ॥

(फर्क यही होता है कि) उन नासमझों को जो फल मिलता है वह अचिर-स्थाई होता है। (क्योंकि) देवताओं के पूजक (ज्यादे से ज्यादा) देवताओं तक ही पहुँच पाते हैं। (लेकिन) मेरे भक्त तो मुझ तक भी पहुँच जाते हैं - मेरा स्वरूप भी हो जाते हैं। 23।

यहाँ 'मामपि' में जो अपि शब्द है उससे 'मुझे भी' ऐसा अर्थ हो जाता है। अर्थात भगवान के भक्त भगवान तक तो पहुँचते ही हैं। लेकिन दूसरे पदार्थों तक भी उनकी पहुँच होती है - उन्हें दूसरे पदार्थ भी प्राप्त होई जाते हैं। न कि वे भूखे-प्यासे मरते हैं। इसीलिए कह दिया है कि 'योगक्षेमं वहाम्यहम्' (9। 22)। 'आर्त्तो जिज्ञासु' (7। 16) में भी कही दिया है कि भगवान की भक्ति दूसरे-दूसरे उद्देश्यों से भी होती है। इसीलिए यहाँ यह कह देना जरूरी था कि मेरी भक्ति से दूसरी चीजें भी मिलती हैं। मैं तो मिलता ही हूँ। मगर 'मियाँ की दौड़ मस्जिद तक' के अनुसार देवताओं के पूजक अधिक से अधिक उन्हीं तक जा सकते हैं।

यदि यह प्रश्न हो कि वह लोग ऐसा क्यों करते हैं? सभी भगवान को ही क्यों नहीं भजते? क्योंकि यहाँ तो दोनों हाथों में लड्डू है, तो इसका उत्तर पहले ही दे चुके हैं 'हृतज्ञाना:' और 'प्रकृत्या नियता: स्वया' इन्हीं शब्दों से। उसी का विवेचन आगे के दो श्लोकों में है। असल में ऐसे लोग चाहते तो हैं कि भगवान की ओर चलें। चलते भी हैं। लेकिन समझ तो होती नहीं। इसीलिए भौतिक वायु-मंडल में पैदा हो के उसी में पले ये लोग उस परिस्थिति को डाँक सकते नहीं। फलत: इन्हीं भौतिक स्थूल पदार्थों का ही देवी-देवताओं के रूप में भगवान समझ के पूजने लगते हैं। उनका भगवान कोई दूसरा तो होता नहीं। वैसा निराकार और अविनाशी भगवान तो उनकी नजरों से ओझल है। बीच में वह ठगने वाली एवं अनेक युक्ति फैलाने वाली माया जो आ गई है और उसी में वे फँस गए हैं।

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं म न्यंते मामबुद्धय:।

परं भावमजा नंतो ममाव्ययमनुत्तमम्॥ 24 ॥

नाहं प्रकाश: स र्व स्य योगमायासमावृत:।

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥ 25 ॥

मेरे निर्विकार, सर्वोत्तम एवं सबसे बढ़े-चढ़े अदृश्य स्वरूप को नासमझ लोग नहीं जानते (फलत:) मुझे स्थूल या भौतिक रूप ही मान लेते हैं। (क्योंकि) मैं तो अनेक हिकमत वाली माया से छिपा होने के कारण सर्वसाधारण की नजर में आता नहीं। (इसीलिए) ये मूढ़ लोग मुझ अजन्मा (और) अविनाशी को ठीक-ठीक समझ पाते नहीं। 24। 25।

इस पर प्रसंगवश फौरन ही यह प्रश्न उठता है कि जब भगवान और जनसाधारण के बीच माया का बहुरंगा परदा है और वही भगवान को छिपाए हुए है, जिससे लोग उसे देख नहीं सकते, तो वह भी लोगों को, इस बाहरी दुनिया को कैसे देख सकेगा? वह परदा तो समानरूप से दोनों की ही दृष्टि रोकेगा। प्रत्युत जब भगवान माया से घिरा है, आवृत है, बल्कि समावृत है, अच्छी तरह घिरा है, तब तो उसकी दृष्टि और भी संकुचित होनी चाहिए। विपरीत उसके जनसाधारण तो उसके सिवाय बाकी सभी पदार्थों को बखूबी देख सकते हैं। क्योंकि उनके लिए तो केवल भगवान ही पर्दे में है न? इसका चट-पट उत्तर दे के ही आगे बढ़ते हैं। उत्तर यों है -

वेदाहं समतीतानि वर्त्तमानानि चार्जुन।

भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥ 26 ॥

हे अर्जुन, मैं तो पुराने गुजरे हुए, वर्त्तमान एवं भविष्य सभी पदार्थों को देखता हूँ। लेकिन मुझी को कोई नहीं देखता। 26।

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यांति परंतप॥ 27 ॥

हे भारत, हे परंतप, रागद्वेष से पैदा होने वाले द्वन्द्व के झमेले के चलते सभी प्राणियों को जन्म से ही भूल-भुलैया में पड़ जाना होता है। 27।

येषान्त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।

ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भ जंते मां दृढव्रता:॥ 28 ॥

(लेकिन) जिन पुण्यकर्मा लोगों के पाप खत्म हो चुके हैं, वे द्वन्द्वों के झमेले से छुटकारा पा के मुझ परमात्मा को ही बड़ी मुस्तैदी से पकड़ लेते हैं। 28।

बीच में प्रसंगवश जो इन तीन श्लोकों में लिखी बातें आ गई हैं उनके बारे में कुछ और भी जान लेना आवश्यक है। यह ठीक है भगवान पर परदा होने से उसकी भी दृष्टि संकुचित होने का प्रश्न पैदा होता है। उसका उत्तर देना भी इसीलिए जरूरी हो जाता है। इसी से कह भी दिया है कि भगवान तो त्रिकालदर्शी है और सब कुछ जानता है। मगर लोग ही उसे जान नहीं सकते। इसका कारण भी यही है कि इस माया की नींद ने भगवान को सुलाया तो है नहीं कि उसकी जानकारी जाती रहे और वह सपने देखने लगे। यह तो जीवों या जनसाधारण की ही नींद है, जिससे उनकी आँखें बंद हैं। फलत: वे परमात्मा को, जो उन्हीं की आत्मा है, देख नहीं सकते। इसीलिए जरूरत भी इस बात की है कि भगवान में लगन लगा के इस नींद एवं माया को मिटाया जाए, जैसा कि पहले इसी अध्याैय में कह दिया है।

लेकिन इस प्रश्न की जरूरत ही क्या थी, यह पूछा जा सकता है। यदि भगवान की दृष्टि भी तंग हो जाए तो हमारा क्या बिगड़ता है? अर्जुन का क्या घटता था? उसका काम तो वैसे ही चलता रहता। आखिर उसकी दृष्टि संकुचित से विस्तृत तो हो गई नहीं। यह बात पहले कही जा चुकी ही है।

दरअसल अर्जुन की और दूसरे लोगों की भी हानि जरूर ही थी यदि भगवान की नजर भी तंग हो। क्योंकि तब तो गीता का जो उपदेश है वह खासकर सृष्टि के संबंध में जो बातें कृष्ण कह रहे थे उन पर अविश्वास करने की ही नौबत आ जाती।जब साधारण लोगों जैसी ही या उनसे भी गई गुजरी समझ उपदेशक के पास हो तो उसकी बात का क्या ठिकाना? उसमें विश्वास करेगा ही कौन? इसलिए ही यह कहना पड़ा ।

लोगों की दृष्टि ऐसी क्यों होती है और भगवान की नहीं यह बात 27वाँ श्लोक बताता है। यह ठीक है कि जीव और परमात्मा एक ही हैं। दोनों में वस्तुगत्या कोई भी फर्क नहीं है। फिर भी जीवों के साथ अनादिकाल से काम-क्रोध तथा रागद्वेष का भारी पचड़ा लगा है और यही सब गुड़गोबर करता है। यह बात बार-बार कही गई है। तीसरे अध्याभय के अंत में तो इस पर बहुत ज्यादा प्रकाश भी डाला गया है कि इन रागद्वेषों के चलते क्या-क्या अनर्थ होते हैं और खत्म कैसे किया जा सकता है। किंतु ये दोनों भगवान में हैं नहीं। इसलिए वहाँ कोई गड़बड़ हो पाती नहीं। इन रागद्वेषों के चलते अपने-पराए, सुख-दु:ख, शत्रु-मित्र आदि द्वन्द्वों के बखेड़े उठ खड़े होते हैं। फिर तो मनुष्य का मानस पटल पक्का अखाड़ा ही बन जाता है, उसकी गर्द उड़ जाती है, धज्जियाँ उड़ जाती हैं और चारों ओर अंधेरा जैसा छा जाता है। यही है द्वन्द्व से होने वाला मोह। इसी को दूसरे अध्याधय में क्रोध के भीतर ही शामिल कर दिया है। उसके बाद वाले सम्मोह को ही यहाँ मोह कह दिया है। यही है किंकर्तव्य विमूढ़ता या भ्रम या अज्ञान। यह बात जन्म के साथ ही होती है। फिर तो ये रागद्वेष जरा भी मौका नहीं देते कि हम सँभल सकें। यही बात 'सर्गे यांति' (7। 27) में कही गई है। इसीलिए शुरू से ही इससे पिंड छूटने पर मन भगवान में जा सकता है यह बात 28वें श्लोक में आई है। ताकि इन्हें खत्म करने में हम जनमते ही लग पड़ें।

अब फिर पुराने प्रसंग यानी 25वें श्लोक की बात को पकड़ के आगे बढ़ते हैं। क्योंकि बीच के तीन श्लोक प्रसंगवश ही आए थे। हाँ, तो यह समस्त संसार ब्रह्मरूप ही है यही बात चलती थी। अगर शुरू के चार (8-11) श्लोकों पर, जिनमें खास पदार्थों का वर्णन आया है, गौर करें तो पता चलेगा कि उन्हें तीन दलों में बाँट सकते हैं, जिन्हें पुराने लोगों ने आध्याात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक कहा है। पृथिवी, जल, अग्नि और आकाश तो भूत हैं। इसीलिए इनके गंध, रस आदि का वर्णन आधिभौतिक हुआ। क्योंकि गंध, रसादि भूतों में ही रहते हैं। अत: अधिभूत हो गए। इसी प्रकार चंद्र और सूर्य की बात आधिदैविक हो गई और बुद्धि, बल, तेज, तप, जीवन और काम ये छ: हो गए आध्याैत्मिक। शरीर के भीतर ही तो ये पाए जाते हैं। यह भी एक कारण कि वायु को भूत में न रख के जीवन के रूप में यहीं रख दिया है। नहीं तो दो बार कहना पड़ता। क्योंकि अध्याूत्मक में प्राण जैसी प्रसिद्ध चीज को छोड़ नहीं सकते थे। उपनिषदों में भी उसे कहीं नहीं छोड़ा है। चंद्र-सूर्य में चमक और दिव्य तेज होने से उनका दल आधिदैविक हई। इन आध्याभत्मिक आदि चीजों पर विशेष प्रकाश पहले ही डाला जा चुका है। वहीं यह भी बताया गया है कि अधियज्ञ नाम की चौथी चीज क्यों और कैसे आई है। यह भी बता चुके हैं कि किस प्रकार सुख-दु:ख, बल, बुद्धि से बढ़ते-बढ़ते आत्मा को ही अंत में अध्याित्मी मानने लगे। ब्रह्म की बात तो बार-बार सर्वत्र आई ही है और कर्म की भी। 'प्रणव:' 'सर्ववेदेषु' कहने से भी इस कर्म की तरफ इशारा होता है। क्योंकि 'ब्रह्मणोमुखे' कहके वेदों में कर्मों की ही प्रधानता मानी है।

इस प्रकार अधिभूत, अध्यांत्म्, अधियज्ञ, अधिदैव आदि के रूप में जो लोग ब्रह्म का निरंतर मनन करते हैं वही विज्ञान के अधिकारी होते हैं। इसीलिए इस सातवें अध्या'य में संक्षेप से अध्यादत्म आदि का उल्लेख नमूने के तौर पर ही हुआ है। मनन करने वाले इसी नमूने को बढ़ा के हजारों पदार्थों में इस बात का मनन-चिंतन कर सकते हैं और अंत में अद्वैत आत्मा का साक्षात्कार भी कर सकते हैं। यों कहिए कि उन्हीं को पूर्ण ब्रह्म का ज्ञान या ब्रह्म का पूर्ण साक्षात्कार होता है। जिनने ऐसा कर लिया है उनकी बुद्धि चक्कर या भ्रम में - सम्मोह में - पड़ ही नहीं सकती। यहाँ तक कि मरणकाल की अपार वेदना के समय भी वह विचलित नहीं हो पाती। क्योंकि वह जिधर ही जाती है अध्यात्मादि के रूप में आत्मा ही आत्मा पाती है। यही है बहुत बड़ी विशेषता इस विवेचन की। संक्षेप में यही बातें कहते हुए दो श्लोकों में अध्याीय का उपसंहार इस प्रकार करते हैं -

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य य तंति ये।

ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नम ध्या त्मं कर्म चाखिलम्॥ 29 ॥

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्त चेतस:॥ 30 ॥

(फलत:) जन्म और मरण से छुटकारे के लिए जो मुझमें ही मन लगा के यत्न करते हैं वही उस पूर्ण ब्रह्म को, अध्याऔत्मट को और समस्त कर्मों को जानते हैं। (इसी तरह) अधिभूत, अधिदैव एवं अधियज्ञ के रूप में भी जो मुझ परमात्मा को साक्षात अनुभव करते हैं; पूर्ण समाधि में मन लगानेवाले वही लोग मरण के समय भी मुझ परमात्मा का ही साक्षात्कार करते हैं। 29। 30।

यहाँ जरा से जन्म समझना ही ठीक है। वही मरण की साथिनी है और सर्वत्र आया करती है। असल में जन्म के कष्ट का तो अनुभव रहता नहीं। इसीलिए कष्ट दिखाने के लिए जरा लिखा है। मरण का कष्ट खुद देखते ही हैं। जन्म का कष्ट माँ अनुभव करती है, न कि बच्चा। जन्म कहने से जीवन भर के कष्ट आ जाते हैं। इसी प्रकार कर्म का अर्थ केवल यज्ञयागादि न हो के सृष्टि का सारा व्यापार ही है, जैसा कि आठवें अध्यारय में लिखा है। आत्मज्ञानी को सृष्टि के समस्त व्यापार नजर आने लगते हैं कि कैसे क्या बनता है, जमीन आदि कैसे बनती है, बनी है। तभी तो उसे निस्संदेह अद्वैत ज्ञान होता है।

इस अध्याय का विषय ज्ञान-विज्ञान है यह तो कही चुके हैं।

इति श्री. श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्याय:॥7॥

श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में, जो श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है उसका ज्ञान-विज्ञान योग नामक सातवाँ अध्याय यही है।




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